Антоний (Блум), митр.
Профессиональные интересы: Апологетическое (основное) богословие
Конфессии: Православие

Краткая биографическая справка:

Митрополит Антоний (Блум) - родился 19 июня (6 июня) 1914 года в Лозанне, в семье сотрудника российской дипломатической службы (у отца были шотландские корни), по материнской линии — племянник знаменитого композитора Александра Скрябина. Детство Андрея прошло в Персии, где его отец был консулом. После революции в России семья была вынуждена эмигрировать и в 1923 году поселилась во Франции.

В 14-летнем возрасте Андрей прочёл Евангелие и обратился ко Христу, состоял активным членом РСХД, был прихожанином Трёхсвятительского подворья в Париже. По завершении курса школы поступил в Сорбонну и окончил там биологический и медицинский факультеты (1938).

В 1939 году тайно принял монашеские обеты и отправился на фронт в качестве армейского хирурга (1939—1940), затем работал врачом в Париже. Во время оккупации Франции участвовал в движении Французского сопротивления. 17 апреля 1943 года был пострижен в монашество с именем Антоний, иеродиакон — с 27 октября 1948 года. С 14 ноября 1948 года — иеромонах, рукоположение совершил митрополит Серафим (Лукьянов). Направлен в Великобританию в качестве духовного руководителя англикано-православного Содружества святого мученика Албания и преподобного Сергия (1948—1950).

С 1 сентября 1950 года по 4 августа 2003 года — настоятель Успенской церкви Патриаршего прихода в Лондоне, с 7 января 1954 года — игумен, с 9 мая 1956 года — архимандрит.

30 ноября 1957 года хиротонисан во епископа Сергиевского, викария Западно-Европейского экзархата Московского Патриархата с местопребыванием в Лондоне. Архиерейскую хиротонию возглавил митрополит Николай (Ерёмин) в храме Трёхсвятительского подворья в Париже. В 1961 году в составе делегации РПЦ участвовал в работе съезда Всемирного совета церквей (ВСЦ) в Нью-Дели.

В 1962 году возведён в сан архиепископа с поручением окормления русских православных приходов в Великобритании и Ирландии во главе учреждённой 10 октября 1962 года Сурожской епархии РПЦ в Великобритании. Его проповеди привлекли в лоно православной Церкви сотни англичан.

С 1968 по 1975 года — член Центрального комитета ВСЦ.

3 декабря 1965 г. возведён в сан митрополита и назначен Патриаршим экзархом Западной Европы. 5 апреля 1974 года заменён на посту экзарха митрополитом Никодимом (Ротовым).

На Поместном Соборе РПЦ в июне 1990 года был предварительно выдвинут в качестве дополнительного кандидата на Патриарший престол; кандидатура была отведена председательствовавшим в первый день Собора митрополитом Филаретом (Денисенко) ввиду того, что у предложенного кандидата не было советского гражданства (что было требованием Устава к кандидату в Патриархи). Был председателем счётной комиссии на Соборе, избравшем митрополита Ленинградского Алексия (Ридигера).

1 февраля 2003 года подал прошение об уходе на покой по состоянию здоровья, а 30 июля 2003 года постановлением Священного Синода РПЦ освобождён от управления Сурожской епархией и уволен на покой.

Скончался 4 августа 2003 года в Лондоне.

Автор многочисленных книг и статей на разных языках о духовной жизни и православной духовности, почётный доктор наук Абердинского университета (1973), Кембриджского университета (1996), Московской Духовной академии (1983) и Киевской духовной академии (1999).

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Die Heilung des Blindgeborenen
„Um uns herum, in unserer Kirche und überall lebt eine Unmenge von Menschen, deren geistige Augen erloschen sind oder die nie zu sehen vermochten. Lasst uns sie mit Liebe und Mitleid bei uns aufnehmen und gemeinsam für sie beten! Doch das reicht noch nicht aus: Wir müssen es lernen, unseren Glauben so zu leben, dass dieser sie begeistert. Wir müssen sie an dem teilhaben lassen, was wir haben. Dazu bedarf es nur eines: Liebe.“ – aus einer Predigt zur Heilung des Blindgeborenen von Metropolit Antonij von Sourozh
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Christus und die Samariterin
„Lasst uns deshalb von dieser Frau lernen, denn auch wir – wir alle – haben uns in alle Richtungen verfangen, um satt zu werden von der Nahrung dieser Welt. Doch wir alle haben begreifen müssen, dass uns nichts wirklich satt machen kann, weil der Mensch eine Tiefe hat, die viel tiefer ist, als all die materiellen Dinge, und viel tiefer und geräumiger ist, als die Psychologie es erklären kann. Nur Gott kann diese Tiefe und diesen Raum in uns ausfüllen. Wenn wir dies doch nur begreifen könnten! Dann wären wir in der gleichen Lage wie diese Frau, ohne Christus an einem Brunnen treffen zu müssen. Denn der Brunnen ist das Evangelium. Es ist die Quelle, aus der das Wasser des Lebens für uns entspringen kann. Das Evangelium ist wirklich wie ein Brunnen und sein Wasser sollten wir immerwährend trinken, denn es ist das Wasser des Lebens.“ - aus einer Predigt zum Sonntag der Samariterin von Metropolit Antonij von Sourozh
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Vom Erlahmten
„Es gibt ganz Massen, aber keinen Menschen. Man könnte sich in den anderen Bereichen des Lebens noch damit abfinden, dass es dort wenig Liebe gibt, dass die Menschen sich nur um sich selbst kümmern und mit sich selbst beschäftigt sind, dass sie aneinander vorbeigehen und vorübergehen an der Not eines anderen. Doch innerhalb der Kirche gibt es dafür keine Entschuldigung, denn die Kirche ist, wie sie der Heilige Ignatius beschrieben hat, die Fleisch gewordene Liebe. Und wo es diese Liebe nicht gibt, gibt es auch keine Kirche. Dann existiert sie nur zum Schein, dann ist sie ein Betrug, der die Menschen von ihr fortstößt.“ – aus einer Predigt zum Sonntag des Erlahmten von Metropolit Antonij von Sourozh
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Η Κυριακή του Παραλύτου
„Υπάρχει ένος όχλος, δεν υπάρχει άνθρωπος. Σε άλλες σφαίρες της ζώης θα μπορούσαμε κάπως να συμβιβαστούμε με αυτή τη κατάσταση, ότι δεν υπάρχει αγάπη, ότι οι άνθρωποι φροντίζουν και αποσχολούνται μόνο με τον εαυτό τους, ότι προσπερνούν άλλους χωρίς μα παρατηρήσουν τις ανάγκες τους. Δεν μπορούμε, όμως, να συμβιβαστούμε μ΄αυτό ποτέ μέσα στην Εκκλησία. Επειδή η Εκκλησία, όπως την προσδιόρισε ο Άγιος Ιγνάτιος ο Θεοφόρος, είναι η ενσαρκωμένη αγάπη, και όπου δεν υπάρχει η αγάπη δεν υπάρχει Εκκλησία. Είναι μόνο επίφαση και απάτη, που απωθεί τους ανθρώπους.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για την Κυριακή του Παραλύτου
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Η Κυριακή των μυροφόρων
„Το δεύτερο που τους είπε ο Χριστός ήταν το εξής: Όπως με έστειλε ο Πατέρας μου, σας στέλνω και Εγώ. Ο Θεός έστειλε τον Υιό Του για να μαρτυρήσει για την αλήθεια, για να γεννήσει και να διασπείρει την αγάπη. Ο Χριστός έστειλε τους μαθητές Του, για να συμφιλιώσει τον κόσμο με το Θεό, και – αν χρειαστεί – και με τίμημα τη δική τους ζωή. Το έκαναν, και τώρα είμαστε, χάρη στο κατάρθωμά τους ζωντανοί, γιατί δεν προφύλαξαν τη ζωή τους, και μπορούμε να ψάλλουμε την Ανάσταση του Χριστού και να χαρούμε με την αιώνια χαρά!“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλουμ) για την Κυριακή των μυροφόρων
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Sonntag der Myronträgerinnen
„Sein zweites Wort war jedoch: „Wie mein Vater Mich gesandt hat, so sende auch Ich euch.“ Gott hatte Seinen Sohn dazu gesandt, um von der Wahrheit zu künden, um Liebe zu säen und zu verbreiten. Christus schickte seine Jünger, um die Welt mit Gott zu versöhnen und dies, wenn es nötig ist, mit dem eigenen Leben zu bezahlen. Und sie taten es und dank ihrer Mühen haben wir nun das Leben. Denn weil sie sich selbst nicht schonten, können wir nun die Auferstehung besingen und mit einstimmen in die ewige Freude.“ – aus einer Predigt zum Sonntag der Salböl tragenden Frauen von Metropolit Antonij von Sourozh
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Η Κυριακή του Θωμά
„Ο Θωμάς είχε δεί τον Χριστό ενσαρκωμένο πολλές φορές, αλλά αυτή τη φορά Τον βλέπει ενσαρκωμένο, αφού είχε περάσει από το θάνατο και την ανάσταση.  Καταλαβαίνει, ότι Αυτός που στέκεται μπροστά του είναι ζωντανός, παρόλο που έχει περάσει τη φρίκη του θανάτου. Και δεν μπορεί αλλιώς παρά να Τον ονομάσει Χριστό.Εδώ η σάρκα του Χριστού, η μυστηριώδως ζωντανή σάρκα, μολονότι βρισκόταν στον τάφο, η άφθαρτη σάρκα, διυφασμένη από τη θεότητα, μαρτυρεί τη θεότητα του Ιησού Χριστού, τη δύναμη του Θεού, ότι είναι όντως το Ζωοποιό Πνέυμα,το οποίο έγινε άνθρωπος, νίκησε τον θάνατο, αναστήθηκε από τον τάφο,το οποίο θα αναστήσει τους πάντες.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για την Κυριακή του Θωμά
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Zum Thomassonntag
„Thomas war vielmehr erfüllt und berührt von der Erkenntnis, dass Der, Der vor ihm steht, lebt, obwohl er durch das Grauen des Todes gegangen war. Diese unglaubliche Tatsache bringt ihn dazu, Jesus als Christus zu bezeugen. Es ist der Leib Christi, welcher, obwohl er im Grab gelegen hat, auf geheimnisvolle Weise lebendig ist. Er begreift, dass Er unversehrt geblieben ist, weil er durchdrungen ist von der göttlichen Natur. Dieser Leib bezeugt die Gottheit Jesu Christi, bezeugt die Macht Gottes. Er ist wirklich der Lebenspendende Geist, Der Mensch geworden war, Der den Tod besiegt hat, Der aus dem Grabe auferstanden ist und den Beginn der Auferstehung der Toten darstellt, denn Er wird alle zum Leben erwecken.“ – aus einer Predigt zum Thomassonntag von Metropolit Antonij von Sourozh
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Πάσχα
„Μέσα από αυτό το κήρυγμα άλλαξαν οι σχέσεις μεταξύ των ανθρώπων. Ο καθένας έγινε πολύτιμος στα μάτια κάποιου άλλου. Ο κόσμος έγινε πιο πλατύς  και πιο βαθύς. Άνοιξαν τα όρια της γης και η γη ενώθηκε με τον ουρανό και τώρα, εμείς – οι χριστιανοί – είμαστε, όπως το είπε ένας δυτικός θεολόγος, εκείνοι οι άνθρωποι, στα χέρια των οποίων ο Θεός, μέσα από το Χριστό, έδωσε άλλους ανθρώπους, για να πιστέψουν στον εαυτό τους - επειδή ο Θεός πιστεύει σε μας - για να μπορέσουν να ελπίζουν τα πάντα, επειδή ο Θεός ελπίζει σε μας. Για να μπορέσουν να κρατήσουν τη πίστη μας μέσα από δοκιμασίες, μίσος, φρίκη και δίωξη: τη νίκη η οποία έχει ήδη νικήσει στον κόσμο, την πίστη στο Χριστό, τον σταυρωμένο και αναστημένο.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούσοζ (Μπλούμ) για το Πάσχα
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Ostern
„Diese Botschaft veränderte das Verhältnis zwischen den Menschen. Jeder Mensch wurde wertvoll in den Augen der anderen. Der gesamte Weltenbau wurde breiter und tiefer. Es öffneten sich die Grenzen der Erde und Himmel und Erde wurden eins. Nun sind wir, Christen, nach den Worten eines westlichen Predigers, jene, durch die Gott in Jesus Christus die Welt anderen Menschen übergeben hat, damit sie an sich glaubten, denn auch Gott glaubt an uns, damit sie auf alles hoffen können, denn auch Gott hofft auf uns, damit sie durch Anfechtungen, Hass, Grauen und Verfolgung unseren triumphfierenden Glauben hindurch tragen können, der die Welt bereits besiegt hat: den Glauben an Christus Gott, der gekreuzigt wurde und auferstanden ist.“ – aus einer Osterbotschaft des Metropoliten Antonij von Sourozh
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Η Κυριακή των Βαϊων
„Το να είναι κανείς ελεύθερος σημαίνει να ανήκει στο Θεό, γιατί μόνο ο Θεός μπορεί να μας κάνει ελεύθερους. Είμαστε κρατούμενοι της αμαρτίας, της γης, του θανάτου.  Είμαστε αιχμάλωτοι της δικής μας τυφλότητας, της οκνηρίας και της αδυναμίας μας. Και λοιπόν ο Κύριος μας λέει: Σήκω! Αν ανταποκρινόμασταν σ΄αυτό το κάλεσμα του Κυρίου, τότε θα μας έδινε και τη δύναμη να στεκόμαστε και να ζούμε.“ – από μια ομιλία του Μητροπλίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για την Κυριακή των Βαϊων
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Palmsonntag
„Frei zu sein, bedeutet zu Gott zu gehören, denn nur der Herr kann uns frei machen. Wir sind gefangen in den Stricken der Sünde. Wir sind Knechte der Erde und des Todes. Wir sind gefangen durch unsere Blindheit, von unserer Trägheit und Schwachheit. Und der Herr spricht: Steh auf! Wenn wir wirklich auf diesen Ruf des Herrn reagieren würden, dann würde Er uns auch die Kraft dazu geben, die Kraft zu stehen und zu leben.“ – aus einer Predigt zum Palmsonntag von Metropolilt Antonij von Sourozh
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Η Μαρία της Αιγύπτου
„Πόσο συχνά θα θέλαμε να προσευχηθούμε, αλλά δεν υπάρχει προσευχή. Θα θέλαμε να αγαπήσουμε, μα η καρδιά μας είναι σαν πέτρα. Θα θέλαμε να συγεντρώσουμε τις σκέψεις μας, μα αυτές διασπείρονται και πλανώνται. Θα θέλαμε με όλη τη θέλησή μας να αρχίσουμε μια καινούργια ζωή, μα δεν το καταφέρνουμε, γιατί η θέλησή μας αποσυντέθηκε σε κάποιες ορισμένες επιθυμίες, σε όνειρα και λαχτάρες, και πιά δεν έχει δύναμη. … Κάποιες φορές συγκρατούμαστε και συνειδητοποιούμε την κατάσταση. Για λίγες στιγμές λυπόμαστε, πονάει η καρδιά μας και τότε  σκεφτόμαστε: Μήπως είναι κλειστός ο δρόμος προς το Θεό για μένα? Αλλά κατόπιν ηρεμούμε, ξεχνάμε, μας βυθίζει στο βάλτο ... Αυτό δεν συνέβη με τη Μαρία της  Αιγύπτου. Την έπιασε η φρίκη και έτρεξε για βοήθεια, για έλεος, για σωτηρία ...“ –από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούσοζ (Μπλούμ) για την Κυριακή της Μαρίας της Αιγύπτου
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Der Tempel des Heiligen Geistes
„Lasst uns deshalb uns selbst als einen Boden verstehen lernen, in den ein fruchtbarer Samen gelegt wurde und in dem durch die Kraft und die Gnade des Heiligen Geistes dieser Samen heranwächst. Wir sind Seiner nicht immer würdig. Und doch lebt er in uns, wie es der Apostel Paulus einmal ausgedrückt hat. Im vollen Maße können wir das nicht so sagen, doch wir sollten es wissen, dass Christus in uns lebt und wir in Ihm. Früher oder später wird sich das Wunder dieser Anteilhabe an Ihm vollends vor uns offenbaren. Möge Gott es jedem von uns gewähren. Möge jeder von uns fest daran glauben, dass der Same  gelegt ist und dass er heranwächst, dass es gilt, ihn zu behüten vor all dem, was ihn zertreten und vernichten kann.“ – aus einer Predigt von Metropolit Antonij von Sourozh zum Sonntag der Maria von Ägypten.
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Johannes Klimakos
„Wenn sich nun jeder von uns dazu entschließen könnte, das Evangelium noch einmal zu lesen und versucht, irgendein Wort zu finden, welches seiner Seele neues Leben einhaucht, das Herz besonders berührt, den Geist Licht werden lässt, und ihn zu neuem Leben inspiriert und dann versucht, täglich, und das über Jahre hinweg, diese Wort im Leben Wirklichkeit werden zu lassen, dann wird jeder von uns auf die Liebe Gottes mit seinem Leben antworten können – d.h. mit aufopferungsvoller, freudiger, dankbarer Liebe.“ – aus einer Predigt zum Sonntag des Johannes Klimakos von Metropolit Antonij von Sourozh
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Ο Ευαγγελισμός της Θεοτόκου
„Ο Άγιος Γρηγόριος Παλαμάς λέει ότι η ενσάρκωση δεν θα ήταν δυνατή χωρίς την ελεύθερη ανθρώπινη συμφωνία της Θεοτόκου, όπως και δεν θα ήταν δυνατή χωρίς τη δημιουργική θέληση του Θεού. Την ημέρα του Ευαγγελισμού βλέπουμε στο πρόσωπο της Θεοτόκου μια Παρθένο, η οποία μπόρεσε με όλη τη καρδιά, με όλο το νού, με όλη τη προσωπικότητά της να εμπιστευθεί εντελώς τον Θεό.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για τον Ευαγγελισμό της Θεοτόκου
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Ο Iωάννης της Κλίμακος
„Πρέπει να ανταποκρινόμαστε στην αγάπη σε όλες  τις φάσεις της ζωής μας, με όλη τη ουσία μας. Αν προσπαθήσουμε να το κάνουμε, θα δούμε, πόσα εμπόδια έχουμε μέσα μας για να το κάνουμε πραγματικά. Και εμφανίζεται μπροστά μας μια ερώτηση. Είμαστε άραγε ικανοί να αποκριθούμε σ΄αυτή την αγάπη? Μήπως δεν τσακίζεται κάθε προσπάθεια από τη φύση μας, από  τις αμαρτωλές συνήθειές μας? Μήπως είναι μάταιο το να τις παλεύουμε? Χρειαζόμαστε συμβουλές, χρειαζόμαστε καθοδήγηση, χρειαζόμαστε ανθρώπους, οι οποίοι πέρασαν οι ίδιοι εκείνο το δρόμο, οι οποίοι θα μπορούσανε να μας πούν: Γνωρίζω αυτό το δρόμο, θα σου τον δείξω.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για την Κυριακή του Ιωάννη της Κλίμακος
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Zum Sonntag der Kreuzverehrung
„Nur wenn wir es vermögen, uns selbst an die Stelle Jenes zu stellen, der Gott als den Einzigen verehrt und der nach Seinem Beispiel als Knecht – wie es in einem Kirchenlied heißt - seinem Nächsten dient, können wir den nächsten Schritt tun. Nur dann wird all das, was uns so schwer erscheint, zum Kreuz unseres Heils werden. Es ist dann nicht mehr jenes Kreuz, das zu tragen der Räuber gezwungen war, der sich damit auf gerechte Weise für seine Untaten verantworten musste. Es wird vielmehr zu dem Kreuz, welches der Heiland trug, um so mit uns gemeinsam das  Leid der Sünde zu tragen. Wenn wir so von uns absehen lernen, auf unsere Schultern all die Schwere unseres Lebens laden und voller Ehrfurcht und Liebe auch die Last der Anderen zu tragen versuche, dann können wir Christus dorthin folgen, wohin er geht: in das Reich der sich gegenseitig  vergebenden Liebe.“ – aus einer Predigt zum Sonntag der Kreuzverehrung von Metropolit Antonij von Sourozh
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Η προσκύνηση του Σταυρού
„Εκείνο το περήφανο, άπληστο „εγώ“ πρέπει να αρνηθούμε, πρέπει να απαρνηθούμε τον εαυτό μας, πρέπει να βγάλουμε τον εαυτό μας από το κέντρο της ζωής μας, όπου θα έπρεπε να υπάρχει μόνο ο Θεός για να προσκυνούμε μόνο Αυτόν. Αν δεν το κάνουμε,  τότε η ζωή μας – μπορεί να είναι εύκολη ή δύσκολη – που την φέρουμε σαν σταυρό, ποτέ δεν μπορεί να γίνει για μας σταυρός της σωτηρίας μας, μα με το φορτίο που βάζει στους ώμους μας, μας δίνει ξανά και ξανά μια αφορμή να συνκεντρωθούμε στον εαυτό μας και να αμφιβάλουμε, αν πραγματικά μπορούμε να έχουμε εμπιστοσύνη στο Θεό.“ από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για Κυριακή της προσκύνησης του Σαυρού.
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Γρηγόριος Παλαμάς
„Τί χαρά είναι αυτή! Τί θαύμα! Πώς μπορούμε να ευχαριστήσουμε εκείνους τους ασκητές  που τόσο εξάγνισαν την ψυχή και το σώμα τους, τόσο αγιάστηκαν με το να είναι κοντά στο Θεό, ώστε μπόρεσαν να μας ανοίξουν εκείνο το μυστήριο: ότι ο άνθρωπος είναι αρκετά μεγάλος για να δεχτεί τη θεϊκή παρουσία μέσα του, και περισσότερο από το να τη δεχτεί, όχι μόνο να είναι ένα δοχείο της θεότητας, ένας ναός του Θεού, μα να ενωθεί με το Θεό τόσο, ώστε ο Θεός και ο άνθρωπος να ενώνονται σε ένα μυστήριο, όπου ο άνθρωπος απομένει άνθρωπος και ο Θεός δεν περιορίζεται σε κανένα πλαίσιο.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για τον Γρηγόριο Παλαμά
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Gregor Palamas
„Was für eine Freude ist dies! Wie wunderbar ist das! Und wie dankbar können wir diesen Asketen sein, die so ihre Seele und ihren Leib gereinigt haben und sich so durch die stetige Nähe zu Gott geheiligt haben, dass sie uns dieses Mysterium offenbaren konnten: das Mysterium, dass der Mensch so großartig ist, dass er die Göttliche Gegenwart in sich tragen kann! Ja sogar mehr als tragen! Dass er nicht nur ein Tempel der Gottheit, nicht nur ein Gefäß für Dessen Gegenwart sein kann, sondern so von ihr durchdrungen werden kann, dass Gott und Mensch sich zu einem Mysterium verbinden, in dem der Mensch ganz Mensch bleibt und Gott sich in keine Grenzen zwängt.“ – aus einer Predigt zum Sonntag des Gregor Palamas von Metropolit Antonij von Sourozh
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Η Κυριακή της Ορθοδοξίας
«Και επειδή συμμετέχουμε σ΄αυτό το θαύμα του να γνωρίζουμε το Θεό μέσω της ενσάρκωσης του Χριστού, μέσω του δώρου του Αγίου Πνεύματος, μέσω της μικρής μας πίστης, μέσω της εμπιστοσύνης στο Θεό, της λαχτάρας για το Θεό, σήμερα μπορούμε να χαρούμε. Μπορούμε να αλαλάξουμε για το γεγονός, ότι ο Θεός με την αγάπη Του, με την ευσπλαχνία Του, με τη τρυφερότητά Του μας αποκαλύπτεται, μας δίνει την δυνατότητα να Τον γνωρίσουμε: όχι μόνο με το νού, αλλά να Τον γνωρίσουμε μέχρι το βάθος της ψυχής μας, για να ξέρουμε Ποιός είναι ο Θεός» - από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για τη Κυριακή της Θρθοδοξίας
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Zum Fest der Orthodoxie
„Und da wir hineingenommen sind in dieses Wunder, die Erfahrung „Gott“ zu machen, dank Seiner Menschwerdung in Jesus Christus, durch die Gabe des Heiligen Geistes, durch unseren bescheidenen Glauben, unser Vertrauen zu Gott, unsere Sehnsucht nach Ihm, können wir heute auch wirklich feiern und uns darüber freuen, dass Gott in Seiner Liebe, in Seiner Barmherzigkeit, in Seiner Zärtlichkeit sich uns zu erkennen gibt – nicht nur verstandesgemäß, sondern in einer Art und Weise, die die verborgensten Tiefen unserer Seele erfasst. Er gibt sich uns zu erkennen. Er zeigt uns, Wer Er ist, wer Gott ist, und lässt uns diese Erfahrung miteinander teilen.“ – aus einer Predigt zum Sonntag der Orthodoxie von Metropolit Antonij von Sourozh
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Über das Gebet des Ephrem von Syrien
„Aus der Schau der Größe des Menschen und der Herrlichkeit Gottes wird im Menschen die Demut geboren. Nicht aber aus dem ständigen Sich Bewusstmachen der eigenen Misserfolge oder der eigenen Unwürdigkeit. … Demut, im englischen humility, kommt vom lateinischen Wort humus. Fruchtbarer Boden. Dies ist ein sehr passendes Bild. Die Erde, der Boden ist immer da. Auf ihm gehen wir und er lässt mit sich machen, was wir wollen. Er nimmt unseren Müll auf, aber auch lebendigen Samen und Sonnenstrahlen und Regen. Er  kann alles aufnehmen und daraus Früchte hervorbringen. Man denkt nicht an ihn. Er schweigt. Er hält alles aus und bringt doch Frucht.  Darin besteht Demut.“ – aus einer Gespräch über das Gebet von Ephrem dem Syrer von Metropolit Antonij von Sourozh
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Zum Sonntag der Vergebung
„Lasst uns deshalb aufmachen in dieses Reich! An der Schwelle zu ihm steht das Kreuz des Herrn, danach Seine Auferstehung. Lasst uns so gehen, wie diesen Armen und Bettler: Lasst uns vergessen, was uns dann und wann entzweit hat – Feindschaft, Konkurrenz, Missverständnisse und Hass. Lasst uns, wenn wir auf dem Weg sind, einzig und allein daran denken, vor Wen wir treten werden! Lasst uns so gehen, dass wir würdig vor dem Herrn erscheinen können, dass Er uns annimmt. Dafür ist nur eines nötig: dass wir einander annehmen und vergeben in Liebe, dass wir die Schwachen auf dem Weg stützen, den Kraftlosen helfen, den Verzweifelten Hoffnung machen und jedem helfen, ans Ziel zu kommen.“ – aus einer Predigt zum Sonntag des Vergebens von Metropolit Antonij von Sourozh
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Κυριακή της Τυρηνής
„Ας πάμε και εμείς προς αυτή τη Βασιλεία. Πρώτα, στην αρχή της, βρίσκεται ο σταυρός του Κυρίου και μετά θα συναντήσουμε την Ανάστασή Του. Ας πάμε, όπως το έκαναν οι φτωχοί και ζητιάνοι. Ας ξεχάσουμε όλα όσα μας διχάζουν: εχθρότητα, ανταγωνισμό, επιπολαιότητα και μίσος. Ας σκεφτούμε μόνο, πού πηγαίνουμε και μπροστά σε Ποιόν θα σταθούμε. Ας καταλάβουμε ότι το μόνο που χρειάζεται για να σταθούμε άξιοι μπροστά στον Κύριο, για να μπορεί να μας δεχτεί, είναι το να δεχτούμε και να συγχωρέσουμε ο ένας τον άλλον με αγάπη, το να υποστηρίξουμε σ΄αυτό το δρόμο τον αδύνατο, να ενισχύσουμε τον ασθενή, να δώσουμε ελπίδα στον απελπισμένο, να βοηθήσουμε καθέναν να φτάσει στο τέρμα.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπολούμ) για τη Κυριακή της Τυρηνής
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Για την Τελική Κρίση
„Στην Τελική Κρίση - όπως το λέει σαφώς το σημερινό απόσπασμα του Ευαγγελίου – ο Κύριος δεν θα ρωτήσει για τη πίστη μας, για τις πεποιθήσεις μας ή για το πώς προσπαθούσαμε να Του αρέσουμε εξωτερικά. Θα μας ρωτήσει: „Ήσασταν ανθρώπινοι ή όχι? …  Ήσασταν ανθρώπινοι με τον πιο απλό τρόπο, όπως φέρεται ανθρώπινα ένας απλός ειδωλολάτρης? Οποιοσδήποτε μπορεί να είναι ανθρώπινος, που έχει μια καρδιά, ικανή για να ανταποκριθεί στον ανθρώπινο πόνο . Άν την έχετε, τότε η πόρτα είναι ανοιχτή για να μπείτε μέσα στη βασιλεία του Θεού και να συμμετέχετε στη Θεότητα.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για τη Τελική Κρίση
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Vom Jüngsten Gericht
„Wie ich schon bemerkt habe, wird Seine einzige Frage darin bestehen, ob wir menschlich waren. Und dieses „menschlich“ gilt es im einfachsten Sinne dieses Wortes zu verstehen. So menschlich wie es auch ein einfacher Heide sein kann. Jeder, der ein Herz hat, ist fähig menschlich zu sein. Wenn wir wirklich ein Herz haben, dann sind für uns die Pforten zum Reich Gottes offen, um dort an ihm teilzuhaben. Dies wird eine Teilhabe sein, die tiefer ist als das Sakrament der Kommunion, durch welches wir uns ja auch mit Gott verbinden. Durch diese Teilhabe werden wir uns so mit Ihm vereinigen, dass wir zu einem Tempel des Heiligen Geistes werden, zum Leib Christi, zu einem Ort, an dem Er ganz Gegenwart ist.“ – aus einer Predigt zum Sonntag des Jüngsten Gerichts von Metropolit Antonij von Sourozh
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Das Fest der Begegnung
„Wir sind nach den Worten des Apostels dazu auserkoren, die Leiden Christi, die es noch zu leiden gilt, zu erdulden. … Unsere Seele ist dazu ausersehen, den Kummer von Golgatha um die gefallene Welt,  die sich nicht um ihr Heil bemüht, zu ertragen. Denn wir sind der Leib Christi, weil wir mit Ihm sind. Die Tragödie, die mit der Ankunft Christi vom Alten Testament und von der alten Menschheit genommen und zur Tragödie Gottes, zur Tragödie Christi geworden war, setzt sich nun über die Jahrhunderte an uns fort. Wie hatte einmal Patriarch Alexej I  gesagt: Die Kirche ist der Leib Christi, der durch die Jahrhunderte hindurch zum Heil der Welt gekreuzigt wird. Sie trägt ihr Kreuz, sie stirbt in der Angst des Gartens Gethsemane, sie stirbt mit dem Gefühl, von Gott verlassen zu sein, und, wenn es so nötig ist, auch auf immer verachtet zu sein von den Menschen auf der Erde.“ – aus einer Predigt zu Maria Lichtmess von Metropolit Antonij von Sourozh
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Του ασώτου υιού
„Όταν μας πλησιάζει ένας άνθρωπος, όταν επιστρέφει ένας άνθρωπος που ήταν κάποτε πολύτιμος για μας, που, όμως,  είχε προσβάλει εμάς ή κάποιον άλλον – μάλιστα όχι τόσο κοντινό μας – του δίνουμε όλα όσα είχε πριν? Τον τυλίγουμε με την παλιά θερμότητα? ... Όχι. Και γι΄αυτό οι συμφιλιώσεις ανάμεσά μας δεν είναι σταθερές. Γι΄αυτό είναι τόσο τρομερό το να πάς να συμφιλιωθείς, γιατί ξέρεις ότι δεν βρίσκεις τον πατέρα, μα την ψεύτικη αρετή, την ψεύτικη εντιμότητα, η οποία ξέρει να ταπεινώνει τον άλλο, λέγοντας: δεν είσαι αδελφός για μένα, αν και Εκείνος σε δέχεται, όπως και εμένα, ώς γιό.“ – από μια ομιλία του Μητροπολίτη Αντωνίου Σούροζ (Μπλούμ) για του Ασώτου Υιού.
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